गुरु श्लोक अर्थ सहित | Guru Shlok Meaning in Hindi

Guru Shlok Meaning in Hindi : यहाँ इस लेख में गुरु श्लोक अर्थ सहित उपलब्ध कराएँगे बहुत सारे छात्र जिनको संस्कृत में रूचि है या जो लोग अच्छे पंडित बनना चाहते है।

वैसे लोग Guru Shlok Meaning in Hindi जानना चाहते है उनके लिए हम 20+ Guru Mantra Shlok जारी किये है।

Guru Shlok Meaning in Hindi

(1)

गुरुर्ब्रह्मा ग्रुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः । 
गुरुः साक्षात् परं ब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः ॥

भावार्थ : गुरु ब्रह्मा है, गुरु विष्णु है, गुरु हि शंकर है; गुरु हि साक्षात् परब्रह्म है; उन सद्गुरु को प्रणाम ।

(2)

धर्मज्ञो धर्मकर्ता च सदा धर्मपरायणः । 
तत्त्वेभ्यः सर्वशास्त्रार्थादेशको गुरुरुच्यते ॥

भावार्थ : धर्म को जाननेवाले, धर्म मुताबिक आचरण करनेवाले, धर्मपरायण, और सब शास्त्रों में से तत्त्वों का आदेश करनेवाले गुरु कहे जाते हैं ।

(3)

निवर्तयत्यन्यजनं प्रमादतः स्वयं च निष्पापपथे प्रवर्तते ।
गुणाति तत्त्वं हितमिच्छुरंगिनाम् शिवार्थिनां यः स गुरु र्निगद्यते ॥

भावार्थ : जो दूसरों को प्रमाद करने से रोकते हैं, स्वयं निष्पाप रास्ते से चलते हैं, हित और कल्याण की कामना रखनेवाले को तत्त्वबोध करते हैं, उन्हें गुरु कहते हैं ।

(4)

नीचं शय्यासनं चास्य सर्वदा गुरुसंनिधौ । 
गुरोस्तु चक्षुर्विषये न यथेष्टासनो भवेत् ॥

भावार्थ : गुरु के पास हमेशा उनसे छोटे आसन पे बैठना चाहिए । गुरु आते हुए दिखे, तब अपनी मनमानी से नहीं बैठना चाहिए ।

(5)

किमत्र बहुनोक्तेन शास्त्रकोटि शतेन च । 
दुर्लभा चित्त विश्रान्तिः विना गुरुकृपां परम् ॥

भावार्थ : बहुत कहने से क्या ? करोडों शास्त्रों से भी क्या ? चित्त की परम् शांति, गुरु के बिना मिलना दुर्लभ है ।

(6)

प्रेरकः सूचकश्वैव वाचको दर्शकस्तथा । 
शिक्षको बोधकश्चैव षडेते गुरवः स्मृताः ॥

भावार्थ : प्रेरणा देनेवाले, सूचन देनेवाले, (सच) बतानेवाले, (रास्ता) दिखानेवाले, शिक्षा देनेवाले, और बोध करानेवाले – ये सब गुरु समान है ।

(7)

गुकारस्त्वन्धकारस्तु रुकार स्तेज उच्यते । 
अन्धकार निरोधत्वात् गुरुरित्यभिधीयते ॥

भावार्थ : ‘गु’कार याने अंधकार, और ‘रु’कार याने तेज; जो अंधकार का (ज्ञान का प्रकाश देकर) निरोध करता है, वही गुरु कहा जाता है ।

(8)

शरीरं चैव वाचं च बुद्धिन्द्रिय मनांसि च । 
नियम्य प्राञ्जलिः तिष्ठेत् वीक्षमाणो गुरोर्मुखम् ॥

भावार्थ : शरीर, वाणी, बुद्धि, इंद्रिय और मन को संयम में रखकर, हाथ जोडकर गुरु के सन्मुख देखना चाहिए ।

(9)

विद्वत्त्वं दक्षता शीलं सङ्कान्तिरनुशीलनम् । 
शिक्षकस्य गुणाः सप्त सचेतस्त्वं प्रसन्नता ॥

भावार्थ : विद्वत्व, दक्षता, शील, संक्रांति, अनुशीलन, सचेतत्व, और प्रसन्नता – ये सात शिक्षक के गुण हैं ।

(10)

अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जन शलाकया । 
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः ॥

भावार्थ : जिसने ज्ञानांजनरुप शलाका से, अज्ञानरुप अंधकार से अंध हुए लोगों की आँखें खोली, उन गुरु को नमस्कार ।

Guru Mantra Shlok in Hindi

(11)

गुरोर्यत्र परीवादो निंदा वापिप्रवर्तते । 
कर्णौ तत्र विधातव्यो गन्तव्यं वा ततोऽन्यतः ॥

भावार्थ : जहाँ गुरु की निंदा होती है वहाँ उसका विरोध करना चाहिए । यदि यह शक्य न हो तो कान बंद करके बैठना चाहिए; और (यदि) वह भी शक्य न हो तो वहाँ से उठकर दूसरे स्थान पर चले जाना चाहिए ।

(12)

विनय फलं शुश्रूषा गुरुशुश्रूषाफलं श्रुत ज्ञानम् । 
ज्ञानस्य फलं विरतिः विरतिफलं चाश्रव निरोधः ॥

भावार्थ : विनय का फल सेवा है, गुरुसेवा का फल ज्ञान है, ज्ञान का फल विरक्ति है, और विरक्ति का फल आश्रवनिरोध है ।

(13)

यः समः सर्वभूतेषु विरागी गतमत्सरः । 
जितेन्द्रियः शुचिर्दक्षः सदाचार समन्वितः ॥

भावार्थ : गुरु सब प्राणियों के प्रति वीतराग और मत्सर से रहित होते हैं । वे जीतेन्द्रिय, पवित्र, दक्ष और सदाचारी होते हैं ।

(14)

एकमप्यक्षरं यस्तु गुरुः शिष्ये निवेदयेत् । 
पृथिव्यां नास्ति तद् द्रव्यं यद्दत्वा ह्यनृणी भवेत् ॥

भावार्थ : गुरु शिष्य को जो एखाद अक्षर भी कहे, तो उसके बदले में पृथ्वी का ऐसा कोई धन नहीं, जो देकर गुरु के ऋण में से मुक्त हो सकें ।

(15)

बहवो गुरवो लोके शिष्य वित्तपहारकाः । 
क्वचितु तत्र दृश्यन्ते शिष्यचित्तापहारकाः ॥

भावार्थ : जगत में अनेक गुरु शिष्य का वित्त हरण करनेवाले होते हैं; परंतु, शिष्य का चित्त हरण करनेवाले गुरु शायद हि दिखाई देते हैं ।

(16)

सर्वाभिलाषिणः सर्वभोजिनः सपरिग्रहाः । 
अब्रह्मचारिणो मिथ्योपदेशा गुरवो न तु ॥

भावार्थ : अभिलाषा रखनेवाले, सब भोग करनेवाले, संग्रह करनेवाले, ब्रह्मचर्य का पालन न करनेवाले, और मिथ्या उपदेश करनेवाले, गुरु नहीं है ।

(17)

दुग्धेन धेनुः कुसुमेन वल्ली शीलेन भार्या कमलेन तोयम् ।
गुरुं विना भाति न चैव शिष्यः शमेन विद्या नगरी जनेन ॥

भावार्थ : जैसे दूध बगैर गाय, फूल बगैर लता, शील बगैर भार्या, कमल बगैर जल, शम बगैर विद्या, और लोग बगैर नगर शोभा नहीं देते, वैसे हि गुरु बिना शिष्य शोभा नहीं देता ।

(18)

योगीन्द्रः श्रुतिपारगः समरसाम्भोधौ निमग्नः सदा शान्ति क्षान्ति नितान्त दान्ति निपुणो धर्मैक निष्ठारतः ।
शिष्याणां शुभचित्त शुद्धिजनकः संसर्ग मात्रेण यः सोऽन्यांस्तारयति स्वयं च तरति स्वार्थं विना सद्गुरुः ॥

भावार्थ : योगीयों में श्रेष्ठ, श्रुतियों को समजा हुआ, (संसार/सृष्टि) सागर मं समरस हुआ, शांति-क्षमा-दमन ऐसे गुणोंवाला, धर्म में एकनिष्ठ, अपने संसर्ग से शिष्यों के चित्त को शुद्ध करनेवाले, ऐसे सद्गुरु, बिना स्वार्थ अन्य को तारते हैं, और स्वयं भी तर जाते हैं ।

(19)

पूर्णे तटाके तृषितः सदैव भूतेऽपि गेहे क्षुधितः स मूढः ।
कल्पद्रुमे सत्यपि वै दरिद्रः गुर्वादियोगेऽपि हि यः प्रमादी ॥

भावार्थ : जो इन्सान गुरु मिलने के बावजुद प्रमादी रहे, वह मूर्ख पानी से भरे हुए सरोवर के पास होते हुए भी प्यासा, घर में अनाज होते हुए भी भूखा, और कल्पवृक्ष के पास रहते हुए भी दरिद्र है ।

(20)

दृष्टान्तो नैव दृष्टस्त्रिभुवनजठरे सद्गुरोर्ज्ञानदातुः स्पर्शश्चेत्तत्र कलप्यः स नयति यदहो स्वहृतामश्मसारम् ।
न स्पर्शत्वं तथापि श्रितचरगुणयुगे सद्गुरुः स्वीयशिष्ये स्वीयं साम्यं विधते भवति निरुपमस्तेवालौकिकोऽपि ॥

भावार्थ : तीनों लोक, स्वर्ग, पृथ्वी, पाताल में ज्ञान देनेवाले गुरु के लिए कोई उपमा नहीं दिखाई देती । गुरु को पारसमणि के जैसा मानते है, तो वह ठीक नहीं है, कारण पारसमणि केवल लोहे को सोना बनाता है, पर स्वयं जैसा नहीं बनाता ! सद्गुरु तो अपने चरणों का आश्रय लेनेवाले शिष्य को अपने जैसा बना देता है; इस लिए गुरुदेव के लिए कोई उपमा नहि है, गुरु तो अलौकिक है ।

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